मेरा अपना इसमें कुछ भी नहीं .........

जो भी कुछ यहाँ लिखा है जिनेन्द्र देव और जैन तीर्थंकरों की वाणी है !

जैन साधुओं व साध्वियों के प्रवचन हैं !!

सभी को इसे Copy/Share करने की स्वतंत्रता है !

कोई कापीराइट नहीं ..........

Thursday 7 February 2013

धन ‘धरा’ का इस ‘धरा’ पर सब धरा रह जाएगा !


मित्रों जय जिनेन्द्र ......शुभ प्रात: प्रणाम
सिकंदर भारत से वापस कैसे लौटा ? इस बारे में जैन इतिहास में प्रसिद्द एक घटना !सिकंदर जब भारत आया था तो उसकी माँ ने कहा था ,हो सके तो भारत से किसी सन्त को साथ लेकर के आना ! सुकरात जो महान दार्शनिक हुआ ,उसने कहा था ,भारत जाकर वहाँ के लोगो के स्वभाव को देखना ,उनकी सहज प्रकृति को देखना ,तब तुम समझोगे कि भारत के लोग कितना महान हैं !
सिकंदर जब भारत को जी भरकर लूट चूका तो उसे अपनी माँ कि बात याद आई ! उसने अपने मंत्री को किसी सन्त को लाने के लिए भेजा ! मंत्री ढूँढ़ते - ढूँढ़ते एक दिगम्बर सन्त के पास पहुंचा ! सन्त ने उसे अपने आचार्य के पास भेज दिया ! आचार्य ने कहा –जो अगर सच में ही सिकंदर संतों के दर्शन करना चाहता है ,तो स्वयं आये ! मंत्री ने कहा –जानते भी हो आप किस के बारे में बात कर रहे हो ? वह सिकंदर महान है ! सम्राटों का सम्राट है !
आचार्य ने कहा –वह तो गुलामों का गुलाम है ! जाओ उसे जाकर कह दो ! आना है तो स्वयं आये ! मंत्री ने जाकर जब गुलामों के गुलाम कहने की बात सिकंदर को बतायी तो वह स्वयं पहुंचा कि देखता हूँ कौन मुझे ऐसा कहने की हिम्मत करने वाला हुआ ?
सिकंदर आया तो आचार्य ने उसे शांत करते हुए पूछा –सिकंदर क्या तुम्हे क्रोध आता है ? हाँ ! क्रोध तो इतना कि सामने बोलने वाले का सर कलम करवा दूँ !
आचार्य ने कहा –
क्रोध से बढ़कर बुरी कोई चीज नहीं होती !
क्रोध करने वाले की हमेशा दुर्गति होती !
विश्वास नहीं है तो आजमाकर देख लो !
दीपक जलाने वाली दियासलाई पहले स्वयं भस्म होती !!

मान ? 
हाँ ! मान क्यों न हो इतना अपार धन वैभव व राज्य का मै स्वामी हूँ !
मायाचारी ?
हाँ ! माया चारी और कूटनीति के बगैर तो राजनीति हो ही नहीं
सकती !
लोभ ?
लोभ तो इतना है कि मैंने कब्रें खोद खोद कर भी उसमे से पैसे निकाल लिए !
आचार्य ने कहा –सिकन्दर ! हमने इन क्रोध , मान , माया व लोभ को जीता है , अपना गुलाम बनाया है और तुम इनके गुलाम हो ! अब समझो हुए या नहीं तुम हमारे गुलामों के भी गुलाम ? सिकंदर निरुत्तर हो गया ! सिकन्दर ने उन्हें अपने साथ चलने का आग्रह किया तो उन्होंने मना कर दिया ! सिकंदर खोजते खोजते एक और मुनि के चरणों में पहुंचा और उनसे वही आग्रह किया ! मुनि ने एक पल को उसे देखा और कहा – सिकंदर ! काहे को अपने धन वैभव का इतना गुमान करता है ! मै जो जानता हूँ वह तु सहन नहीं कर पायेगा ! तु अपने देश की मिट्टी का स्पर्श भी नहीं कर पायेगा !
वही हुआ –तीन दिन बाद उसका स्वास्थय बिगडा !
पतझड़ का पीला पान है आदमी !
श्वासों से गतिमान है आदमी !
बचपन ,जवानी व बुढापा तो पड़ाव हैं !
अन्त में काल का मेहमान है आदमी !!

जब सिकंदर को विश्वास हो गया कि वो वापस अपनी जन्म भूमि पर नहीं पहुँच पायेगा उसने लिखा – जब मेरा जनाजा उठाया जाए तो उसे वैद्य ,डाक्टर व हकीम उठायें ! सारी धन दौलत को मेरे जनाजे के साथ चलाया जाए मगर एक बात और ध्यान रखना ,मेरे दोनों हाथो को जनाजे से कफ़न से बाहर कर दिया जाए ताकि लोगों को ये सबक मिल सके कि जाते वक्त खाली हाथ ही जाना है और साथ कुछ भी नहीं जाना है !
सिकंदर जा रहा जग से सभी हाली ख्याली थे !
पड़ी थी पास मे दौलत मगर दो हाथ खाली थे !

धन ‘धरा’ का इस ‘धरा’ पर सब धरा रह जाएगा !
बाँध कर मुठ्ठी तु आया कर पसारे जाएगा !!
आचार्य श्री गुप्तिनंदी जी के सायेंकालीन प्रवचन से ! कुछ शब्द मेरे अपने हैं ! त्रुटियों के लिए क्षमा ! 


No comments:

Post a Comment